पाठ-गलता लोहा कक्षा-11 आरोह भाग-1 सारांश शब्दार्थ प्रश्नोत्तर • राजेश राष्ट्रवादी www.rajeshrastravadi.in पाठ का सारांश...
पाठ-गलता लोहा
कक्षा-11
आरोह भाग-1
सारांश
शब्दार्थ
प्रश्नोत्तर
• राजेश राष्ट्रवादी
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पाठ का सारांश
शेखर जोशी द्वारा लिखित कहानी 'गलता लोहा' समाज के जातिगत विभाजन पर कई कोणों से टिप्पणी करनेवाली श्रेष्ठ कहानी है। इस कहानी में लेखक ने जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे को खोखला साबित करते हुए मेहनतकश लोगों के सच्चे भाईचारे को प्रदर्शित किया है। इस कहानी का संक्षिप्त सार अग्रलिखित है-
मोहन एक निर्धन पुरोहित वंशीधर का बेटा है। पुरोहित अपनी पुरोहिताई से अपने परिवार का भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं थे। उन्हें मोहन से बहुत आशाएँ थीं। मोहन बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि का बालक था। स्कूल के मास्टर त्रिलोक सिंह का कहना था कि मोहन एक दिन बड़ा आदमी बनेगा और स्कूल का नाम रोशन करेगा। प्राइमरी स्कूल पास करने पर मिली छात्रवृत्ति ने मोहन को एक मेधावी छात्र सिद्ध कर दिया था। मोहन के पिता वंशीधर की हार्दिक इच्छा थी कि मोहन पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने। उन्होंने उसे आगे पढ़ाने के लिए प्रयास शुरू कर दिए। आगे की पढ़ाई के लिए जो स्कूल था, वह गाँव से चार मील दूर था। दो मील की चढ़ाई के अलावा बरसात के मौसम में रास्ते में पड़नेवाली नदी भी समस्या बन जाया करती थी।
इन समस्याओं को देखते हुए मोहन के पिता ने नदी के पार के गाँव में अपने एक यजमान के यहाँ मोहन का रहना तय कर दिया, किंतु एक बार नदी में बाढ़ आने पर अपने बच्चे की कुशलता चाहने वाले वंशीधर मोहन को घर ले आए। इसके बाद वे निरंतर अपने पुत्र के भविष्य को लेकर चिंतित रहने लगे। एक दिन पुरोहित विगदर्श का ही एक युवक रमेश छुट्टियों में गाँव आया हुआ था। वह लखनऊ में नौकरी करता था। मोहन के पिता ने मोहन की आगे की पढ़ाई की चिंता को उसके सामने रखा। रमेश ने वंशीधर जी को न केवल सांत्वना बल्कि मोहन को उनके साथ लखनऊ भेज देने का सुझाव दिया। उसने मोहन को ठीक प्रकार से रखने और उसे पढ़ाने का आश्वासन भी दिया। वंशीधर जी इस बात के लिए सहर्ष तैयार हो गर और उन्होंने मोहन एक को रमेश के साथ लखनऊ भेज दिया। लखनऊ पहुँचने पर मोहन के जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ। घर को महिलाएँ उसे सारा दिन काम में व्यस्त रखतीं। रमेश ने उसे घर में नौकर के समान रखा और उसका दाखिला साधारण से स्कूल में करा दिया। सारा दिन घर का काम करते रहने के कारण मोहन थक जाता और पूरी तरह पढ़ नहीं पाता। इस प्रकार गाँव का वह मेधावी छात्र मोहन सामान्य बालक बन कर रह गया था। उसका गाँव से नाता लगभग टूट ही गया। उसने अपने माता-पिता को भी अपनी वास्तविक स्थिति नहीं बताई क्योंकि वह उन्हें यह सब बताकर दुखी नहीं करना चाहता था।
मोहन आठवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करके छुट्टियों में गाँव आया हुआ था। जब वह वापिस लखनऊ लौटा तो उसने अनुभव किया कि रमेश और उसके परिवार के सदस्य उसे आगे बढ़ाने के हक में नहीं थे। उनका मानना था कि बहुत से बी० ए०, एम० ए० भी बेरोजगार फिरते रहते हैं। अतः मोहन को हाथ का कोई काम सीखना चाहिए। रमेश ने मोहन को एक तकनीकी स्कूल में भर्ती करा दिया। उसकी दिनचर्या में तब भी कोई परिवर्तन नहीं आया। वह सारा दिन घर का काम करता और पढ़ाई के लिए उसे अवसर ही नहीं मिलता था। धीरे-धीरे समय बीतने लगा और मोहन अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कारखानों और फैक्ट्रियों में नौकरी के लिए चक्कर लगाने लगा। इस प्रकार गाँव के मेधावी मोहन का भविष्य शहर में आकर चौपर हो गया। मोहन के पिता को जब वास्तविकता का पता चला तो उन्हें गहरा दुख हुआ। समय बीतने के साथ-साथ मोहन वापिस अपने गाँव में आकर रहने लगा।
एक दिन मोहन अपने खेत के किनारे की काँटेदार झाड़ियों की कॉंट-छाँट करने के उद्देश्य से घर निकला। उसने देखा कि उसके हँसुवे की धार कुंद पड़ गई। उसकी धार तेज करवाने के लिए वह अपने बचपन के सहपाठी धनराम लुहार के ऑफर पर गया। धनराम गाँव की शिल्पकार जाति से संबंध रखता था और मोहन पुरोहित जाति का था। ब्राह्मण लोगों का शिल्पकार जाति के लोगों से मिलना-जुलना उचित नहीं माना जाता था। मोहन ये यह सब जानते हुए भी धनराम के आफ़र पर काफ़ी देर बैठा रहा। मोहन के हँसुवी की धार तेज करने के बाद धनराम लोहे की एक मोटी छड़ को गोलाई में मोड़ने लगा, किंतु सफल नहीं हो पा रहा था। तभी अचानक मोहन अपनी जगह से उठा उसने लोहे की छड़ को पकड़कर स्थिर किया और धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट लोहे पर की। उसके बाद उसने अपने हाथों से धौंकनी फूंककर लोहे को दुबारा भट्ठी में गर्म करके निहाई पर रखकर ठोक-पीटकर लोहे को सुघड़ गोले का रूप दे दिया। यह सब इतनी तेजी से हुआ था कि धनराम हैरान होकर खड़ा रहा। वह पुरोहित खानदान के एक युवक के भट्ठी पर बैठकर हाथ डालने पर हैरान था। दूसरी ओर मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे के गोले की त्रुटिहीन गोलाई को जाँच रहा था। उसको आँखों में एक सर्जक की चमक थी और वह जातीय भेदभाव से कोसों दूर था।
शब्दार्थ:--
अनायास अचानक - निहाई - एक विशेष प्रकार का लोहे का ठोस टुकड़ा जिसपर लोहे आदि धातुओं को रखकर पीटा जाता है
जर्जर - कमजोर रूद्रीपाठ - भगवान शंकर की आराधना के लिए किया गया पाठ
समवेत स्वर - एक साथ बोलना
धौंकनी- लुहार की आग दहकानेवाली लोहे या बाँस की नली
संटी - पतली डंडी या छड़ी
दारिद्रय - गरीबी
घसियारे- घास काटने का काम करनेवाले
स्वप्नभंग - सपने का टूट जाना
अनुगूँज – रह-रहकर कानों में गूँजनेवाली आवाज़
हँसुवे - घास काटने का औज़ार, दराँती
निःश्वास – लंबी साँस छोड़ना
अनुत्तरित – बिना किसी उत्तर के
कुशाग्र बुद्धि - तेज़ दिमागवाला
प्रतिद्वंद्वी – मुकाबला करनेवाला, विपक्षी
मंदबुद्धि – कम दिमागवाला
विद्याव्यसनी - पढ़ने में रुचि रखनेवाला
बाबत – बारे में
सेक्रटेरियट - सचिवालय
फुरसत - खाली समय
असत्य भाषण- झूठ बोलना
तत्काल – उसी क्षण
असमंजस - दुविधा
हस्तक्षेप – दखल
शंकित – डरी हुई
सर्जक – निर्माण करनेवाला, बनानेवाला
अपरिचित - अनजान
अभ्यस्त - जिसने अभ्यास कर रखा हो, आदी
अवाक - हैरान
त्रुटिहीन – जिसमें कोई कमी न हो
स्पर्धा – होड़, प्रतियोगिता
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पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
पाठ के साथ :--
प्रश्न 1. कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें किताबों की विद्या और पन चलाने की विद्या का शिक आया है?
उत्तर:- धनराम लुहार जाति का लड़का था। वह पढ़ाई-लिखाई में कुछ कमजोर था। एक दिन स्कूल में मास्टर साहच ने जब उससे सथाल पूछा तो उसे नहीं आया। उन्होंने उसे स्पष्ट कहा कि उसके दिमाग में लोहा भरा है उसमें विद्या का ताप नहीं लग सकता। वास्तव में धनराम के पिता के पास भी इतना धन नहीं था कि वह अपने पुत्र को पढ़ा-लिखा सके। इसी कारण धनराम के थोड़ा बड़े होते ही उसने उसे अपने पुश्तैनी काम में लगा दिया था। उसने अपने पुत्र धनराम को धौंकनी फूंकने से लेकर घन चलाने का पूरा काम सिखा दिया था। इसी प्रसंग में किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है।
प्रश्न 2. धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं समझता था ?
उत्तर- मोहन धनराम से कहीं ज्यादा कुशाग्र बुद्धि था। मोहन ने कई बार मास्टर साहब के आदेश पर अपने हमजोली धनराम को बेंत भी लगाए थे और उसके कान भी खींचे थे। यह सब होने पर धनराम मोहन के प्रति ईर्ष्या भाव नहीं रखता था और न ही उसे अपना प्रतिद्वंद्वी मानता था। इसका मुख्य कारण यह था कि उसके मन में बचपन से ही यह बात बैठ गई थी कि मोहन उच्च जाति का है और वह निम्न जाति का है। अतः मोहन का उस पर अधिकार है। इसके अतिरिक्त मास्टर साहब का यह कहना कि मोहन एक दिन बड़ा आदमी बनकर स्कूल का नाम रोशन करेगा, उसे मोहन के प्रति उच्च भाव रखने पर मजबूर कर देता है। उसे भी मोहन से बहुत आशाएँ थीं और वह अपनी हद जानता था। इसी कारण धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझता था।
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प्रश्न 3. धनराम को मोहन के किस व्यवहार पर आश्चर्य होता है और क्यों ?
उत्तर- मोहन ब्राह्मण जाति से संबंध रखता था और धनराम लुहार जाति से संबंधित था। सामान्य तौर पर ब्राह्मण जाति के लोगों का शिल्पकार जाति के लोगों से उठना-बैठना नहीं होता था। जब मोहन धनराम की दुकान पर काम पूरा होने के बाद भी काफ़ी देर तक बैठा रहा तो उसे हैरानी हुई। इससे अधिक आश्चर्य उसे तब हुआ जब मोहन ने धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर लोहे पर नपी-तुली चोट करके धाँकनी को फूंककर लोहे को दो बार भट्ठी में गर्म किया और ठोक-पीटकर उसे एक सुघड़ गोले का रूप प्रदान किया। मोहन ने समाज के सभी जातीय भेदभावों को भुलाकर एकदम नया काम किया था। ब्राह्मण खानदान के एक युवक का लुहार की भट्ठी पर बैठकर काम करना धनराम को बार-बार आश्चर्य में डाल रहा था।
प्रश्न 4. मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है ?
उत्तर- मोहन एक कुशाग्र बुद्धि बालक था। जब वह गाँव के स्कूल में पढ़ता था तो वह अपनी कक्षा का ही नहीं अपितु अपने पूरे स्कूल का मॉनीटर था। जब उसके पिता उसे बिरादरी के एक संपन्न युवक के साथ लखनऊ भेजते हैं तो उसका जीवन पूरी तरह से बदल जाता है। लखनऊ पहुँचने पर वह सारा दिन घर के कामों में लगा रहता है। रमेश जो उसे अपने साथ लेकर आया था, वह भी उसे घरेलू नौकर से अधिक महत्व नहीं देता था। शहर के एकदम नए वातावरण और रात-दिन के घर के कामों में व्यस्त रहने के कारण गाँव का मेधावी छात्र मोहन वहाँ पढ़ाई में बहुत पीछे रह गया और धीरे-धीरे वह अपनी परिस्थितियों के साथ समझौता करने लगा। इस प्रकार गाँव से शहर आने के बाद से उसके जीवन की धारा ही बदल गई थी। इसी कारण लेखक ने मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को उसके जीवन का एक नया अध्याय कहा है।
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प्रश्न 5. मास्टर त्रिलोक सिंह के किस कथन को लेखक ने जुबान के चाबुक कहा है और और क्यों ?
(ख) किस प्रसंग में कहा गया है ?
(ग) यह पात्र-विशेष के किन चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है?
उत्तर - (क) कहानी का यह वाक्य मोहन के लिए कहा गया है।
(ख) मोहन अपने बचपन के सहपाठी धनराम लुहार के पास हँसुवे की धार तेज कराने के लिए गया था। धनराम उसके हँसुवे की धार तेज करने के बाद लोहे की एक मोटी छड़ को भट्ठी में गलाकर गोलाई में मोड़ने की कोशिश कर रहा था किंतु सफल नहीं हो पा रहा था। तभी मोहन धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट लोहे पर करते हुए धौंकनी फूंककर लोहे को दोबारा भट्ठी में गर्म करके उसे ठोक-पीटकर एक सुघड़ गोले के रूप में बदल दिया है। वह समस्त जातीय भेदभावों को भुलाकर धनराम की भट्ठी पर लोहे के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई को देखकर बहुत संतुष्ट था। इसी प्रसंग में यह कथन कहा गया है।
(ग) इस कथन से मोहन की जातिगत भेदभाव विरोधी विचारधारा का पता चलता है। उसके मन में अपनी उच्च जाति का कोई अभिमान नहीं है। वह अपनी ही जाति के लोगों के द्वारा छला गया था। उसे जातिगत आधार पर बने झूठे भाईचारे से नफ़रत हो गयी थी। उसका चरित्र मेहनतकशों के सच्चे भाईचारे के पक्षधर के रूप में सामने आया है।
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पाठ के आस-पास
प्रश्न 1. गाँव और शहर दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन-संघर्ष में क्या फ़र्क है? चर्चा करें और लिखें।
उत्तर- कहानी में मोहन को गाँव और शहर दोनों जगहों पर संघर्ष करते दिखाया गया है। गाँव में वह पढ़ाई के लिए कभी नदी पार करके दूसरे गाँव जाकर रहता है। उसे अपने पिता के यजमान के घर रहना पड़ता है। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वह गाँव में दुखी रहता है। दूसरी ओर शहर में जाकर उसका संघर्ष बढ़ जाता है। उससे नौकरों के समान काम लिया जाता है जिससे उसके भीतर छिपी हुई प्रतिभा का हनन होता है। गाँव का मेधावी छात्र मोहन शहर में काम में देख रहने कमाकारका सामान्य छात्र बन जाता है। धीरे-धीरे उसका भविष्य अंधकारमय होता चला जाता है। गाँव में मोहन का जीवन बहुत सरले जाने के कार का चल रहा था। गाँव के लोगों में उसका आदर होता था, परंतु शहर में उसकी हैसियत नौकरों जैसी थी। रमेश के घर का सारा काम करते-करते ही उसका सुनहरा भविष्य चौपट हो गया।
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प्रश्न 2. एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व आपको कैसा लगता है ? अपनी समझ में उनकी की खूबियों और खामियों पर विचार करें। है ?
उत्तर - मास्टर त्रिलोक सिंह गाँव के स्कूल में पढ़ाते थे। इस कहानी में मोहन और धनराम की बातचीत से ही उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। मास्टर त्रिलोक सिंह की खूबियों के विषय में विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि गाँव के बच्चों में उनका पूरा रौब था। उन्होंने सभी बच्चों को अनुशासन में बाँध रखा था। उनके स्कूल में प्रवेश करते ही सभी बच्चे धमा-चौकड़ी छोड़कर शांत हो जाते थे। वे बच्चों पर जितना क्रोध करते थे, उतना ही प्रेम भी करते थे। दूसरी ओर यदि मास्टर त्रिलोक सिंह की खामियों पर विचार किया जाए तो उनमें सबसे बड़ी कमी यह थी कि वे जातीय भेदभाव से ग्रस्त थे। उनमें ऊँच-नीच की भावना अधिक थी। मोहन उच्च जाति का था इसीलिए वे उससे विशेष लगाव रखते थे और उसका विशेष ध्यान रखते थे। धनराम निम्न जाति से संबंधित था इसी कारण मास्टर साहब उसे भला-बुरा कहते रहते थे। यदि मास्टर साहब ने धनराम को बचपन में कड़े शब्द न कहे होते तो संभव था कि वह भी पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनता। कुल मिलाकर मास्टर त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व खूबियों और खामियों का मिश्रण है।
प्रश्न 3. गलता लाहा कहानी का अंत एक खास तरीके से होता है। क्या इस कहानी का कोई अन्य अंत हो सकता है ? चर्चा करें।
उत्तर- हाँ। इस कहानी का एक अन्य अंत भी हो सकता है। जब मोहन रमेश के साथ लपकेकों में खून व्यस्त रहने के बावजूद वह खूब मेहनत करके पड़ता। वह दिन-रात एक करके और अपनी मेहनत और योग्यता के बल पर बड़ा अफसर बनता। कहानी का ऐसा अंत होना चाहिए था। कहानी के ऐसे अंत से विद्यार्थी यह सीख ले पाता कि कठिन परिश्रम और विपरीत परिस्थितियों में भी दृढ़ निश्चय करने वाला व्यक्ति अभक्ष्य को भी पा सकता है। साथ ही कहानी के अंत में रमेश को पश्चात्ताप करता हुआ दिखाया जाना चाहिए था, जिससे इस प्रकार की मनोवृत्ति आले लोगों को एक सबक मिलता।
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